अब कोई तो गर्भ के अजन्मे बच्चे को मारने की योजना बनाने में लगा है और कोई तो स्वयं अपने को ही समाप्त करने में लगा है तथा कोई अपने बुजुर्ग माता-पिता के जल्दी मरने की दुवा कर रहा है।
आज के समाज में जीवन को समाप्त करने की प्रवृत्ति अधिक हो गयी है। कोई तो अपना जीवन समाप्त कर रहा है और कोई दूसरों के जीवन को समाप्त करने की ओर अग्रसर है।
आज लोग अपने आप में सिमट से गये हैं। कोई किसी के साथ रहने - जीने को तैयार ही नहीं है। पता नहीं किस भय से घिर कर लोग रिस-रिस के मर रहे हैं।
जहाँ जाति वोट देने का आधार बनती है ; वहां अपराधियों को विधान सभा और संसद तक पहुँचाया जाता है।
आध्यात्मिक जीवन के सत्य तो भारत की संस्कृति के सूर्योदय काल से ही परम वैज्ञानिक रहे हैं। इनकी वैज्ञानिकता को भुला कर कपड़े के रंग या फिर चटनी , समोसे अथवा जलेबी में भगवान को खोजने की कोशिश करना हास्यास्पद ही है।
देश को स्वाधीन होने के बाद से यह प्रश्न और उत्तर का खेल जारी है। न तो प्रश्न शांत होते हैं और न उत्तर ही सफल हो पाते हैं। __साभार -- अखंड ज्योति
शब्द से प्यास जगे , शब्द से साधना शुरू हो यहाँ तक तो बात ठीक है , लेकिन शब्द को साधना की सम्पूर्णता मान लिया जाये , शशब्द से तृप्त हो लिया जाये , यह उचित नहीं है।
सेवा-निवृत्त प्राचार्य एस.डी.पी.जी.कालेज। एम.ए.,पी-एच.डी.,डी.लिट.उपाधि प्राप्त। ' आचार्य शंकर पुरस्कार' ॐ एवं प्रणव पर शोध-ग्रन्थ लिखने पर १९९६ में ३१ हजार तथा आदिशंकराचार्य का स्वर्ण-अंकित पदक प्राप्त। मेरे पिता डा.गंगाराम गर्ग गु.का.वि.वि., हरिद्वार
के पूर्व कुलपति रहे तथा विश्वविख्यात विश्व-कोशों के रचयिता।धर्म- पत्नी डा.बीना गर्ग ,डी.लिट.अध्यक्ष,हिंदी-विभाग वी.एम्.एल.पी.जी.कालेज। आर्यसमाज का संरक्षक तथा अखिल भारतीय योग संस्थान का संस्थापक सदस्य।आई.आई.टी.दिल्ली से कम्प्यूटर में A.C.C.L.(92)।